सबका आरक्षण मतलब बेमतलब आरक्षण।
Anshuman Dwivedi
The Listener
Career Consultant and Motivator
आरक्षण का प्रावधान संविधान में, मूलतः, दस वर्ष के लिए किया गया था। अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए और सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों के लिए। प्रारम्भ से लेकर के अबतक दस-दस साल करके आरक्षण को लगभग स्थायी कर दिया गया है। एक तात्कालिक व्यवस्था को चिरायु होने का वरदान भारत के अस्वस्थ लोकतंत्र ने दिया है। आरक्षण का उद्देश्य पिछड़ों को अगड़ों के समकक्ष लाना था, अगड़ों को पीछे लाना नहीं । और, पिछड़ेपन का आधार सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन था, आर्थिक नहीं। इंदिरा साहनी वाद (1992) में न्यायालय ने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े किन्तु आर्थिक रूप से अगड़ों को आरक्षण की श्रेणी से बाहर किया, जिसे "क्रीमीलेयर" कहा गया। न्यायालय ने स्पष्ट निर्णय दिया कि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। दूसरे शब्दों में, आर्थिक रूप से सम्पन्न पिछड़े तो अगड़े हो जाएगें किन्तु केवल आर्थिक आधार पर ही अगड़ों को पिछ़ड़े का दर्जा नहीं मिलेगा। केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाएगा। इंदिरा साहनी वाद में न्यायालय ने यह भी कहा कि आरक्षण केवल प्रारम्भिक भर्ती में दिया जाएगा प्रोन्नति में नहीं। साथ ही ये भी निर्णय दिया कि आरक्षित वर्ग के खाली पद अगले तीन वर्षों तक ही, 50 प्रतिशत सीलिंग का उल्लंघन किए बिना, समायोजित किये जायेंगे। और, तीन वर्ष के बाद खाली रहने पर उन्हें सामान्य घोषित कर दिया जाएगा। इसे अग्रनयन का सि़द्धान्त (Rule of Carry-Forward) कहा गया।
प्रोन्नति में आरक्षण नहीं और अग्रनयन के सिद्धान्त दोनों के निषेध हेतु 77वां, 81वां, 85वां संविधान संशोधन क्रमशः 1995, 2000, 2001 किए गए और अनुच्छेद 16 में 4a और 4b जोड़े गए। आर्थिक आधार पर आरक्षण अब 2019 में एन.डी.ए -II सरकार कर रही है। पहले तीनों संशोधनों को न्यायालय ने गैर-विधिक घोषित नहीं किया। हो सकता है कि मात्र आर्थिक आधार पर आरक्षण को न्यायालय गैर-विधिक घोषित न करे। किन्तु आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों का 10 प्रतिशत आरक्षण 50 प्रतिशत सीलिंग का उल्लंघन करके दिया जा रहा है। भारत के कई राज्यों में आरक्षण 50 प्रतिशत से ज्यादा है। ये भी सम्भव है कि न्यायालय 50 प्रतिशत के उल्लंघन को भी गैर-विधिक न कहे।
सवाल यह है कि यदि न्यायालय सवर्ण आरक्षण (केवल आर्थिक आधार पर) को गैर-विधिक नहीं कहता है तो क्या यह जायज और वाजिब है?
आरक्षण का हेतु सवर्ण और अवर्ण के बीच दूरी घटाने के लिए सेतु का था। सवर्ण आगे थे, आगे हैं, अवर्ण पिछड़े हैं। सामाजिक न्याय को योग्यता पर वरीयता दी गई। समानता को विशिष्टता से ज्याद जरूरी माना गया । अब, जब ये दिखने लगा कि सवर्णों को भी आरक्षण की जरूरत है तो स्पष्ट हो गया कि अन्तर पट गया है, या कम-से-कम, कम हो गया है। सवर्ण भी पिछड़ गए है। या, अवर्ण भारी मात्रा में सवर्ण हो गए हैं। वजह दो में से चाहे जो हो दोनों के बीच के अंतर कम हुए हैं, स्पष्ट है। किन्तु सवर्ण को आरक्षण देकर भारत की राजनीति ने यह स्वीकारा है कि आरक्षण के परिणामस्वरूप अगड़े पिछड़ गये हैं, पिछड़े आगे नहीं बढ़े हैं। वर्ना, यदि दोनों के बीच दूरी घटने का कारण पिछड़ों का अगड़ा होना होता तो आरक्षण उतनी ही मात्रा में कम करने पर विचार किया जाता।
यदि 70 वर्ष की आरक्षण की राजनीति ने, जिनके खिलाफ आरक्षण था उनके लिए आरक्षण देने की नौबत ला दी है तो आरक्षण की नीति और क्रियान्वन पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। यदि अवर्णों और सवर्णों के बीच के अन्तर कम हुए हैं तो दस प्रतिशत आरक्षित वर्ग का कोटा कम करने की जरूरत है न कि सवर्णां को आरक्षण देने की। और यदि, आर्थिक दशा के आधार पर आरक्षण देने का वक्त आ ही गया है तो सभी वर्गों पर इसे लागू किया जाए । आरक्षण को जाति- और पंथ-निर्पेक्ष बनाना चाहिए, साथ ही राजनीति निर्पेक्ष भी। भारत के कुछ लोगों को जाति के आधार पर और कुछ लोगों को अर्थ के आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो आने वाले समय में आरक्षण के दसियों और आधार बनेंगे, जैसे कि भाषा, वैज्ञानिक उपकरण, तकनीकि साधन, क्षेत्र और संप्रदाय, आदि-आदि।
अतः, मेरा सुझाव है कि सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के बजाय आरक्षण 10 प्रतिशत कम किया जाए और क्रमशः इसे समाप्त किया जाए । और इस दौरान आर्थिक रूप से गरीब और वंचित लोगों के लिए अंग्रेजी स्कूलों में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाए और भारत में द्विस्तरीय शिक्षा व्यवस्था समाप्त की जाए। भारत के सर्वागींण विकास के लिए भिन्न-भिन्न खाइयों को पाटने की जरूरत है, न कि उन्हें बढ़ाने की।
सही है। सभी वर्गों के आरक्षण में 10% कमी करके इस 10% को सभी वर्ग के गरीबों को देना चाहिए।
ReplyDeleteबिलकुल सही, बहुत अच्छा सुझाव।
ReplyDeleteAndher nagari Chaupatta raja, takke Ser bhaji takke ser Khaja
ReplyDeleteBahut sahi vichar h
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