राजनीति समाज सेवा है कैरियर नहीं।

Anshuman Dwivedi
The Listener
Career Consultant and Motivator

अक्सर कहा जाता है राजनीति में चारित्रिक शुचिता के लिए पढ़े-लिखों का राजनीति में आना जरूरी है। जितने ज्यादा पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आएंगे राजनैतिक वातावरण उतना ही साफ़-सुथरा होगा। कुछ लोग इस बात का मज़ाक भी उड़ाते है कि विधायक-सांसद बनने के लिए कोई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता नहीं रखी गई। क्लर्क बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी है, मंत्री बनने के लिए नहीं।

मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आकर राजनीति  को ज्यादा होशियार और चालाकी भरा तो बना सकते है, चरित्र देंगे इसकी गारण्टी नहीं है।  राजनीति के अलावा किसी भी सरकारी क्षेत्र में न्यूनतम शैक्षिक योग्यता अनिवार्य है। डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, जज, डी.एम्, एस.पी, प्रोफेसर सभी पढ़े-लिखे है। बहुत पढ़े-लिखे है। किन्तु इनमें से किसी का भी क्षेत्र निष्कलुष नहीं है।

गाँधी जी का मानना है कि पद जिम्मेदारी देता है, अधिकार नहीं। जितना बड़ा पद उतनी बड़ी जिम्मेदारी। अक्सर देखा गया है मोहल्ले में, कस्बों में, गांव में, नगरों में मेरिटोरियस लोग जब बंद कमरों में पढाई कर रहे होते है तो अपेक्षया पढ़ने-लिखने में कमज़ोर बच्चे या कम मेरिटोरियस बच्चे सामाजिक उत्तरर्दाइत्वों का निर्वाहन करते है। जैसे कि, होलिका दहन के लिए लकड़ी जुटाना, घायल-बीमार को अस्पताल ले जाना, गाँव-गली की बहन-बेटियों की शादी में कुर्सी-चारपाई का इंतेज़ाम करना। ऐसे ही बच्चे चुनाव में स्टीकर लगाते है, पोस्टर-बैनर चिपकाते-बांधते है। समाज इन्हे बड़ी इज्ज़त से नही देखता है।  लेकिन जरूरत पड़ने पर इन्ही को बुलाया जाता है और ये काम भी आते है। सामान्य-सी बात है कि चुनाव भी यही लड़ेंगे। स्वभावतः पढ़े-लिखे लोगों के ईर्ष्यापूर्ण आलोचना के केंद्र में ये होते है। जो अपने लिए जीते है वही अपने को योग्य मानते है। और, चरित्रवान भी। घर-परिवार, समाज में उनकी तारीफ़ भी होती रहती है इसलिए अहंकारी भी हो जाते है। मेरिटोरियस लोग सामान्य जनो के प्रति जैसे भाव रखते है यदि उन्हें इंसान होने के विशेषण से खारिज कर दिया जाए तो राजनीति ही नहीं मानवता तक सुधर जाये। मनुष्यता के खिलाफ जितने सघन अपराध शैक्षिक और पांथिक संस्थानों ने किये है उतने बड़े-से-बड़े तनाशाहो, अपराधियों ने नहीं ।

पढ़े-लिखों को राजनीति में लाने से राजनीति ठीक हो जाएगी इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि जैसे पढाई-लिखाई  बाजार की वस्तु हो गयी है वैसे ही राजनीति को बाज़ार के हाथ में सौपना।

दरअसल, शिक्षित होने और चरित्रवान होने के बीच में आज कोई सीधा रिश्ता नहीं रहा। डिग्री किसी नौकरी या व्यवसाय की अर्हता देती है, चारित्रिक मर्यादा नहीं। राजनैतिक शुचिता के लिए जरूरी है ऐसे लोग  राजनीति  में आये जिनके स्वभाव में समाज सेवा और राष्ट्र भाव है। राजनीति को कैरियर की तरह देखने वाले नहीं। ऐसे में राजनैतिक दलों से अपेक्षा है कि ऐसे लोगों को विधायक-सांसद के लिए टिकट दें जो समाज सेवा और सामाजिक कार्य करते-करते राजनीति में आये है और समाज में स्वीकार्य भी है।  पार्टी कार्यकर्ता को अनिवार्य रूप से सामाजिक कार्यकर्ता होना चाहिए। बड़े उद्योगपतियों, कलाकारों, नौकरशाहों, लेखकों, विचारकों, वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों के लिए राज्य सभा ही ठीक है।

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